ओलिंपिक्स मे भारतीय दल का प्रतिनिधित्व कर देश के लिए गोल्ड मेडल लाने वाली दिव्यांग खिलाड़ी आज कागज की थैलिया बना रही है। कागज की थैली बनाकर जीवन यापन कर रही है। देश का मान बढ़ाने वाली इस अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी की उपेक्षा खेलों को लेकर हमारी सोच और नीति पर सवाल खड़े करती है।
जन्म से ही मूक-बधिर गंगाबाई ने झारखंड के जमशेदपुर में विशेष बच्चों के लिए बनाए स्कूल ऑफ होप में रह कर खुद को बैडमिंटन में तराशा। 2011 में एथेंस में वर्ल्ड समर गेम्स में एक गोल्ड और दो सिल्वर झटक कर सबको चौंका दिया था। गंगाबाई पर स्वयंसेवी संस्था जीविका की नजर पड़ी। विशेषज्ञ अवतार सिंह ने उनके भीतर छिपी प्रतिभा को पहचाना।
जीविका के अवतार सिंह ने ही उसे कागज की थैली व ठोंगा बनाने का प्रशिक्षण दिया था। अवतार सिंह बताते हैं कि गंगाबाई बहुत मेहनत करती है। उसे जितना काम दिया जाता है पूरा कर दोबारा काम मांगने चली आती है।।खेल और कला के क्षेत्र में निपुण होने के बावजूद गंगा कागज के पैकेट और थैली बनाने का काम करती हैं। यही जीवन-यापन का जरिया है। गंगा के कंधे पर ही 75 साल के पिता सोहनलाल, मां दुगधी देवी और एक छोटे भाई की जिमेदारी है।
क्या आपका मन नही दुखी होता भारत की एक प्रतिभा का ये जीवन देख कर।