रिद्धिमा की कलम से-डरती हु मैं, बेटी के जनम से

डरती हु मैं, बेटी के जनम से

बहुत खुश हूं मैं जल्दी ही मेरे आंगन मे, खुशियां आने वाली है।रोज़ सुबह की तरह आज भी घर के आंगन मे चाय की चुस्की लेते हुए अख़बार के पन्ने पलट रही हु।अचानक से मुस्कुराहट काफूर हो गयी। चेहरे की चमक क्रोध से जलने लगी। मेरी भीगी आँखे मुझे डरा रही है। ह्रदय कापने लगा कि जैसे वो अपनी मेरी बेटी हो। ये क्या हो रहा है मुझे क्यो डरने लगी हु मै अब बेटी को जनम देने से।

डर लगने लगा है मुझे ये सोचकर अखबार मैं जो आज है कही वो मेरी बेटी तो नही है लेकिन कल मेरी बेटी भी, कही अखबार मे इन खभरो को तरह। नही नही मेरी बेटी के साथ नही … किसी की बेटी के साथ भी नही। है ईश्वर रक्षा करे।

घबराहट मैं ख्याल आने लगे अगर मेरे गर्भ मे बेटी हुई तो ? अब तो बहुत देर हो गयी है क्योंकि अब तो चमकती किरणों का आने का समय जो नज़दीक था। ये कैसा विचार आया मन मे क्यो ना मैं खुद मार डालू जो बेटी जनमे।

बचा लू अपनी बेटी को इन सभी दरिंदो से जो कभी घर के बाहर तो कभी घर मै, अनजान हो या जाने पहचाने, दोस्त हो या रिश्तेदार, सहकर्मी हो या गुरु, पिता हो या भाई, के रूप मे छिपके बैठे है।

डरती हु बेटी के जन्म से।

रिद्धिमा की कलम से

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