जनजातीय गौरव दिवस – 15 नवंबर 2022 वह विशेष अवसर है जब ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध संघर्ष करने वाले जनजातीय नायकों का कृतज्ञ स्मरण प्रासंगिक है। यह स्मरण हमें हमारी स्वतंत्रता के पीछे के त्याग, बलिदान और शौर्य-गाथाओं से तो परिचित करवायेगा ही बल्कि स्वतंत्रता को अक्षुण्ण्रखने के लिए हर कीमत पर भी प्रेरित करेगा। यहाँ प्रस्तुत है देश के और मध्यप्रदेश के कुछ चुनिंदा जनजातीय नायकों के संघर्ष और बलिदानों की संक्षिप्त गाथाएँ :-
भगवान बिरसा मुण्डा
मुण्डा क्रांति के नेतृत्वकर्ता और जन-समुदाय द्वारा बिरसा भगवान के रूप में पूजे जाने वाले बिरसा मुण्डा का जन्म नवंबर 1875 में हुआ था। 1 अक्टूबर 1894 को उनके नेतृत्व में मुण्डाओं ने अंग्रेजों से लगान (कर) माफी के लिये आन्दोलन किया। वर्ष 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी। कारावास से मुक्त होने के पश्चात उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का आह्वान किया, जो मार्च 1900 में उनकी गिरफ्तारी तक सतत रूप से चलता रहा। कारावास में दी गई यातनाओं और उत्पीड़न के कारण जून 1900 को रांची के कारावास में बिरसा भगवान की जीवन यात्रा समाप्त हुई।
रायन्ना
कित्तूर की रानी चेन्नम्मा के विश्वस्त सेनापति रायन्ना ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध आजीवन संघर्ष किया। राजा मल्लासरजा और रानी चेन्नम्मा के गोद लिए हुए पुत्र शिवलिंगप्पा को कित्तूर के सिंहासन पर वैध अधिकार दिलाने के लिए इन्होंने कंपनी के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष किया। छापेमार युद्ध शैली का प्रयोग कर इन्होंने बड़े पैमाने पर ब्रिटिश शक्ति को क्षति पहुँचाई। अंततः इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 26 जनवरी 1831 को मृत्युदंड दे दिया गया।
सिद्धो संथाल
सिद्धो मुर्मू का जन्म भोगनाडीह (वर्तमान में झारखण्ड राज्य में) गाँव में एक संथाल परिवार में 1815 ई. में हुआ था। ब्रिटिश शासन का अत्याचारी रूप इस क्षेत्र में भी देखने को मिल रहा था, जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध जून 1855 में सिद्धो के नेतृत्व में एक विद्रोह की शुरुआत हुई, जिसे संथाल विद्रोह या हूल आंदोलन के नाम से जाना जाता है। संथालों ने आक्रामक ब्रिटिश सत्ता, जो तोप, बंदूकों और बड़ी मात्रा में गोला-बारूद से सुसज्जित थी, का सामना अपने परम्परागत तीर-कमान जैसे हथियारों से किया। सिद्धो ने वीरतापूर्वक युद्ध किया, परन्तु पकड़ लिए गए और इन्हें अगस्त 1855 में पंचकठिया नामक स्थान पर फाँसी दे दी गई।
कान्हू संथाल
कान्हू संथाल का जन्म वर्ष 1820 में आज के झारखण्ड राज्य के भोगानाडीह गाँव में हुआ। ये सिद्धो संथाल के छोटे भाई और संथाल विद्रोह के सह नेतृत्वकर्ता थे। कान्हू ने जून 1855 के भीषण संग्राम में अंग्रेजों का डट कर मुकाबला किया और जिसमें इनके दो छोटे भाइयों चाँद और भैरव ने पूर्ण सामर्थ्य से साथ दिया। इस युद्ध में शक्ति और संसाधन पूर्णतः अंग्रेजों के पक्ष में थे। अदम्य साहस के प्रतीक कान्हू गिरफ्तार कर लिए गए और उन्हें भोगनाडीह में ही फाँसी पर चढ़ा दिया गया।
बाबा तिलका माँझी
संथाल विद्रोह भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध जनजातियों द्वारा प्रतिकार के सर्वप्रथम उदाहरणों में से एक है और इसके नायक थे बाबा तिलका मांझी। भयंकर अकाल और उस पर ब्रिटिश शोषणकारी राजस्व नीतियों के विरुद्ध तिलका मांझी ने शस्त्र उठाये और अत्याचारी कर प्रशासक ऑगस्टस क्लीवलैंड को मार गिराया। ब्रिटिश शक्ति का सामना संसाधनहीन तिलका मांझी और उनके साथी अधिक समय तक न कर सके। अत्यंत क्रूर प्रताड़नाओं के द्वारा फरवरी 1785 में उनकी इहलीला समाप्त हुई।
अल्लूरी यांचाराम राज
वर्ष 1922 के महान रम्या संघर्ष के महानायक अल्लूरी सीताराम राजू ने तत्कालीन मद्रास प्रेसीडेंसी के पूर्व गोदावरी और विशाखापट्टनम क्षेत्रों (वर्तमान आंध्रप्रदेश) में ब्रिटिश शासन को कड़ी चुनौती दी। मद्रास के 1882 के अत्याचारी जंगल कानूनों ने स्थानीय निवासियों की कृषि पर प्रतिबन्ध आरोपित किये थे, जिससे इनका अस्तित्व संकट में आ गया था। अल्लूरी सीताराम राजू ने छापामार शैली द्वारा अंग्रेजों को अनेक अवसर पर पराजित किया। अंततः मई 1924 में उन्हें अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर निर्ममतापूर्ण ढंग से उनकी हत्या कर दी गई।
गुण्डाधुर
बस्तर के एक छोटे से गाँव में पले-बढ़े गुण्डाधुर ऐसे महान क्रांतिकारी थे जिन्होंने एक लम्बे समय तक अंग्रेजों के दांत खट्टे किये। बस्तर के नेतानार में रहने वाले गुण्डाधुर को उस समय बागा धुरवा के नाम से भी जाना जाता था। वर्ष 1910 में गुण्डाधुर के नेतृत्व में एक छोटे से गाँव से शुरू होने वाले इस विद्रोह ने बस्तर के महान भूमकाल के चरम को प्रदर्शित किया जिससे अंग्रेजों की स्थिति यहाँ डांवाडोल हो गई। गुण्डाधुर को आज भी लोक कथाओं और गीतों के द्वारा एक अमर नायक के रूप में याद किया जाता है।
सुरेन्द्र साय
संभलपुर राज्य के राजकुमार सुरेन्द्र साय ने 18 वर्ष की आयु से जीवनपर्यन्त अंग्रेजों के कुचक्रों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष किया। 23 जनवरी 1809 में संभलपुर के निकट खिंडा में जन्म लेने वाले सुरेन्द्र साय ने गोंड और विंझल जनजातीय समुदायों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई। वर्ष 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सुरेन्द्र साय ने अग्रेजों को कड़ी चुनौती दी। इस दौरान उनका कार्यक्षेत्र संभलपुर से कालाहांडी और बिलासपुर तक फैला हुआ था। लम्बे संघर्ष के बाद वर्ष 1862 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और मध्यप्रदेश के बुरहानपुर जिले के असीरगढ़ किले में कैद करके रखा गया, जहाँ 23 मई 1884 को इस महान वीर ने अपनी अंतिम साँस ली।
शंकर शाह
गढ़ा मंडला के पूर्व शासक और महान संग्राम शाह के वंशज, शंकर शाह एक अप्रतिम क्रांतिकारी थे जो युद्ध कला में पारंगत होने के साथ ही साथ काव्य रचना में भी सिद्धहस्त थे। इन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध एक महान सशस्त्र प्रतिरोध का नेतृत्व किया और 18 सितंबर 1857 को जबलपुर में वीरगति को प्राप्त हुए।